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मंगलवार, 20 मार्च 2018

9वें विश्व गौरैया दिवस पर गौरैया और उनके संरक्षण के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी

9वें विश्व गौरैया दिवस पर गौरैया और उनके संरक्षण के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी
गौरैया एक घरेलू चिड़िया है। सामान्य तौर पर यह इंसानों के रिहायशी इलाके के आस-पास ही रहना पसंद करती है। शहरी इलाकों में गौरैया की 6 प्रजातियां पाई जाती हैं। हाउस स्पैरो (House Sparrow), स्पेनिश स्पैरो (Spanish Sparrow), सिंड स्पैरो (Sind Sparrow), डेड सी स्पैरो (Dead Sea Sparrow) और ट्री स्पैरो (Tree Sparrow)। हाउस स्पैरो के शरीर पर छोटे-छोटे पंख, पीली चोंच, पीले पैर होते हैं। इसकी लंबाई लगभग 14 से 16 सेंटीमीटर तक होती है। इनमें नर गौरैया का रंग थोड़ा अलग होता है। इसके सिर के ऊपर और नीचे का रंग भूरा होता है। गले, चोंच और आंखों के पास काला रंग होता है। इसके पैर भूरे होते हैं। 
9वें विश्व गौरैया दिवस पर गौरैया और उनके संरक्षण के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी
अलग-अलग क्षेत्रों में इसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है। तमिल और मलयालम में इसे 'कुरुवी', तेलुगु में 'पिच्युका', कन्नड़ में 'गुब्बाच्ची', गुजराती में 'चकली', मराठी में 'चिमानी', पंजाबी में 'चिड़ी', बांग्ला में 'चराई पाखी', उड़िया में 'घरचटिया', सिंधी में 'झिरकी', उर्दू में 'चिड़िया' और कश्मीरी में 'चेर' कहा जाता है। कहीं-कहीं पर इसे गुडरिया, गौरेलिया, खुसरा चिरई या बाम्हन चिरई के नाम से भी जानते हैं। 

आज गौरैया एक संकटग्रस्त पक्षी है। दस-बीस साल पहले तक गौरैया के झुंड सार्वजनिक स्थलों पर भी देखे जा सकते थे। लेकिन खुद को परिस्थितियों के अनुकूल बना लेने वाली यह चिड़िया अब भारत ही नहीं, यूरोप के कई बड़े हिस्सों में भी काफी कम रह गई है। 

ब्रिटेन, इटली, फ्रांस, जर्मनी जैसे देशों में इनकी संख्या तेजी से गिर रही है। मगर नीदरलैंड में तो इन्हें 'दुर्लभ प्रजाति' के वर्ग में रखा गया है। गौरैया को बचाने की कवायद में दिल्ली सरकार ने गौरैया को अपना राजपक्षी भी घोषित कर दिया था।

एक अध्ययन के अनुसार भारत में गौरैया की संख्या में करीब 60 फीसदी की कमी आई है। हैरानी की बात ये भी है कि यह कमी ग्रामीण और शहरी, दोनों ही क्षेत्रों में हुई है। 

गौरैया की घटती संख्या के कुछ मुख्य कारण हैं - भोजन और जल की कमी, घोंसलों के लिए उचित स्थानों की कमी तथा तेजी से कटते पेड़-पौधे

पक्षी विज्ञानियों के अनुसार गौरैया को फिर से बुलाने के लिए लोगों को अपने घरों में कुछ ऐसे स्थान उपलब्ध कराने चाहिए, जहां वे आसानी से अपने घोंसले बना सकें और उनके अंडे तथा बच्चे हमलावर पक्षियों से सुरक्षित रह सकें। 

20 मार्च को विश्व गौरैया दिवस मनाने की शुरुआत साल 2010 में की गई थी। इसका उद्देश्य पूरी दुनिया में गौरैया पक्षी के संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करना है। 

कभी मेरे घर भी आना गौरैया! - आबिद सुरती

कहां गई गौरैया? क्यों नहीं दिखती गौरैया? सवाल और भी हैं। सवाल सबके लिए हैं। हम पहली बार जिस पक्षी से परिचित हुए थे, वह गौरैया थी। जिस पक्षी के लिए आंगन में अनाज के दाने बिखेरे जाते थे, वह थी गौरैया। लोकगीतों में जिस पक्षी का वर्णन सबसे पहले और ज्यादा मिलता था, वह थी गौरैया। लेकिन अब हम सबकी प्यारी गौरैया घर आंगन में चहकती नहीं दिखती। यह पर्यावरण का नहीं, संस्कृति का भी संकट है। 
कभी मेरे घर भी आना गौरैया!
साल 2013 की बात है। मुझे पानी बचाने के लिए स्पैरो अवॉर्ड दिया गया था। इसके बाद मैंने गौरैया के संरक्षण को लेकर काम करने वाले लोगों के साथ भी काम किया। महाराष्ट्र में जो लोग इस अभियान को लेकर काम कर रहे हैं, उनसे मैं कई बार मिला। इस दौरान कई बातें पता चलीं। मैं एक बात मानता हूं कि चींटी से लेकर हाथी तक हर जीव-जंतु जिसे प्रकृति ने बनाया है, वह धरती के संतुलन के लिए जरूरी है। गौरैया भी इन्हीं में से एक है। उसकी संख्या का धीरे-धीरे कम होते जाना, संतुलन के लिए हानिकारक ही नहीं, हमारे जीवन के लिए खतरनाक भी है। इसकी सबसे बड़ी वजह है हमारे रहन-सहन का बदलना। हमने अपनी जीवनशैली इस तरह बदल ली है कि उसमें गौरैया के लिए जगह ही नहीं बची है। जबकि एक समय ऐसा था जब सूरज निकलने से नहीं सुबह का पता गौरैया की चहचहाट से चलता था। आंगन में झुंड के झुंड नजर आते थे। मगर अब एक भी गौरैया का दिखना दुर्लभ हो गया है। मैं खुद यहां मुंबई में 1995 से हूं। 10-15 साल पहले हर तरफ नजर आती थी गौरैया, अब कहीं नहीं दिखती। तब में और अब में फर्क यह भी आया है कि पहले के समय में आर्किटेक्चर ही ऐसा होता था कि उसमें चिड़िया के लिए भी जगह बनाई जाती थी। झरोखे होते थे, जिनसे चिड़िया घर में आ सकती थी। आले होते थे, जिनमें वह घोंसला बना सकती थी। अब हम घर भी पश्चिम की तर्ज पर बना रहे हैं। सीमेंट के घर बनने से भी काफी नुकसान हुआ है। चारों तरफ से घिरे हुए सीमेंट के घरों की वजह से अब चिड़िया को धूल नहीं मिल रही, न खेलने के लिए न नहाने के लिए। चिड़िया रेत में सिर्फ खेलती ही नहीं हैं, नहाती भी है। इसे सैंड बाथ कहा जाता है। लेकिन आजकल के घरों में कहीं ऐसा कोई स्पेस नहीं है कि पक्षी चोंच भी मार सके। मैं कुछ समय पहले गुड़गांव गया था, तो मुझे लगा सैन फ्रांसिस्को पहुंच गया हूं। कहीं भारत की कोई छवि ही नहीं थी। हर तरफ कांच की इमारतें। अब हम कांच की इमारतें बनाएंगे, तो चिड़िया कहां से आएगी ! गौरैया की संख्या कम होने के पीछे सबसे बड़े जिम्मेदार आर्किटेक्ट हैं। साउथ मुंबई का उदाहरण दूं, तो वहां कई हेरिटेज बिल्डिंगें हैं। वहां जाता हूं, तो गौरैया दिखती हैं। लेकिन बाकी जगह शीशे के बड़े-बड़े टावर हैं, वहां चिड़िया कहीं नजर नहीं आती। हमारे देश के आर्किटेक्ट्स को यह महसूस होना चाहिए कि वे चिड़िया को मार रहे हैं और हमें चिड़िया के लिए कुछ करना चाहिए।  

मॉडर्न टेक्नोलॉजी ने भी गौरैया का बहुत नुकसान किया है। मोबाइल टॉवरों का रेडिएशन भी चिड़िया के लिए बहुत खतरनाक होता है। चिड़िया कई बार उसी में मर जाती हैं। उसका रेडिएशन चिड़िया के लिए बहुत खतरनाक होता है। 

जीवनशैली का एक और बदलाव है, जिसने चिड़िया को हमसे दूर किया है। पहले के समय में परचून की दुकानें हुआ करती थीं। उनमें गेहूं की बोरियां होती थीं। चिड़िया आकर उनमें बैठती थी। अनाज के दाने चुगती थी। अब मॉल कल्चर आ गया है। सब कुछ पैक हो गया है। हमने उसके रहने और रुकने की जगह भी छीन ली और उसके खाने का सामान भी, तो गौरैया कहां आएगी और क्यों आएगी? हमने अब ऐसी जीवनशैली विकसित कर ली है, कि चिड़िया के आने के सारे रास्ते बंद कर दिए हैं। 


हम अपनी जिंदगी में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि गौरैया के बारे में सोचने का वक्त नहीं मिलता। मगर सोचने वाली बात तो है ही कि एक चहचहाहट हमारी जिंदगी से अब गायब हो चुकी है। ये बात कभी-कभी बहुत अखरती है। 

अब हमें यह देखना चाहिए कि गौरैया को बचाने के लिए क्या किया जा सकता है? कम से कम हम उसके पानी पीने का इंतजाम तो कर सकते हैं। इसके लिए खिड़की पर या बालकनी में एक मिट्टी के बर्तन में थोड़ा पानी और प्लेट में दाना रख दें। दूसरा यह भी हो सकता है कि आजकल कंदील की तरह ही चिड़िया के घर भी बाजार में बिक रहे हैं। आप अपने घर के बाहर अगर उसे लटका दें, तो चिड़िया उसमें घर बनाएगी। उसमें आप दाना भी रख दें। पानी भी रख दें। सरकारी स्तर पर भी इसे लेकर प्रयास किए जा सकते हैं। इसमें सबसे पहला काम मैपिंग का हो सकता है। हर शहर में नगरपालिका को गौरैया की मैपिंग की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। ताकि ये पता लगाया जा सके कि कहां और अब कितनी गौरैया हैं। कहीं कम हो रही हैं, तो वजह क्या है? ये काम बड़े पैमाने पर होना चाहिए।
विश्व गौरैया दिवस पर विशेष कभी मेरे घर भी आना गौरैया!
विश्व गौरैया दिवस पर विशेष
हम अपनी जिंदगी में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि गौरैया के बारे में सोचने का वक्त नहीं मिलता होगा। मगर सोचने वाली बात तो है ही कि एक चहचहाहट हमारी जिंदगी से अब गायब हो चुकी है। ये बात कभी-कभी बहुत अखरती है और उसका नकारात्मक असर भी होता है। 

गौरैया को बचाने के लिए एक बात पर और ध्यान देना चाहिए। हम ज्यादा से ज्यादा भारतीय पेड़-पौधे लगाएं। आजकल ज्यादा से ज्यादा डेकोरेटिव प्लांट्स और विदेशी पेड़ लगाने का चलन है। हमारी चिड़िया के लिए इन पेड़-पौधों के कोई मायने नहीं है। वह इन पर घोंसला नहीं बना पाती है। मेहंदी जैसे पेड़ गौरैया के लिए जरूरी हैं। इन पेड़ों पर ऐसे कीड़े पनपते हैं, जिन्हें गौरैया खाती है। इससे वह यहां घोंसला भी बना सकती है और उसे अपनी खुराक भी मिल जाती है। ये कीड़े चिड़िया की परवरिश के लिए बहुत जरूरी हैं। पैदा होने से लेकर चंद महीनों तक उसे इन कीड़ों की खुराक चाहिए ही चाहिए। सरकारी स्तर पर जो भी हो, एक कोशिश हमें अपने स्तर पर अपने घर से कर देनी चाहिए।  


कभी मेरे घर भी आना गौरैया! - आबिद सुरती
आबिद सुरती 
पर्यावरणविद, कार्टूनिस्ट और लेखक

साभार :- अमर उजाला, मनोरंजन, 19 मार्च, 2017 ई.

शनिवार, 24 जून 2017

तब सिर्फ किताबों में मिला करेगी गौरैया

Only Sparrows will be found in books तब सिर्फ किताबों में मिला करेगी गौरैया
साभार : Encyclopedia Britannica
मुझे आज से पांच दशक पहले का समय याद आता है, जब घर के आंगन में गौरैया बेखौफ फुदकती थी और घर वालों को उसका फुदकना, चहचहाना बहुत भाता था। उसकी चहचहाहट को घर के लिए शुभ माना जाता था, लेकिन आज उसी गौरैया के दर्शन दुर्लभ हो गए हैं। ऐसा लगता है कि उनके बिना घर का आंगन सूना है। भारत, यूरोप, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और कई अमेरिकी देशों में पाई जाने वाली गौरैया अब कस्बों और गांवों से भी लुप्त हो चुकी हैं। यदि कहीं कभी उसके दर्शन हो गए, तो आप अपने को खुशकिस्मत समझिए। हमारे देश में पक्षियों की तादाद जानने-बताने के लिए मुंबई में ‘बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी’ (बीएनएचएस) और ‘सलीम अली सेंटर फॉर ऑर्निथोलॉजी ऐंड नेचुरल हिस्ट्री’ हैं। लेकिन विडंबना यह है कि इन केंद्रों के पास गौरैया से संबंधित कोई जानकारी नहीं है। सरकार के पास भी नहीं है। यूरोप में चिड़ियों-पक्षियों की संख्या की जानकारी के लिए एक पूरा तंत्र है, पर दुखद है कि गौरैया के बारे में वह भी नाकाम साबित हुआ है। यदि बीते वर्षों के कुछ निजी आकलनों पर गौर करें, तो पता चलता है कि वहां कुछेक वर्षों में गौरैया की तादाद में तकरीबन 85 प्रतिशत की कमी आई है।

इसकी विलुप्ति के पीछे अनगिनत कारण हैं। सबसे पहला कारण तो यही है कि आदमी में प्रकृति और इसके प्रति भावनात्मक जुड़ाव का अभाव और उसके रहन-सहन के तरीकों में बदलाव आया है। नए-नए तरीकों के बनते बहुमंजिला मकानों की वजह से गौरैया के लिए अपने घोंसले बनाने की जगह ही नहीं रही। घर की ्त्रिरयों द्वारा गेहूं भिगोकर आंगन में सुखाने की प्रवृत्ति के ह्रास के चलते गौरैया ने घरों से मुंह मोड़ लिया। देश में दिन-ब-दिन बढ़ती टावर संस्कृति और पर्यावरण प्रदूषण के कारण भी इनकी संख्या कम हो रही है। दरअसल, बढ़ते मोबाइल टावरों के विकिरण के कुप्रभाव से गौरैया के मस्तिष्क व उनकी प्रजनन क्षमता पर घातक असर पड़ा है। साथ ही वे दिशा भ्रम की शिकार होती हैं, सो अलग।

गौरैया की संख्या सिमटते जाने की एक बड़ी वजह विकसित व विकासशील देशों में बिना सीसा वाले पेट्रोल का चलन है। इनके जलने से उत्पन्न होने वाले मिथाइल नाइट्रेट नामक जहरीले यौगिक से छोटे-मोटे कीड़े-मकोड़े खत्म हो जाते हैं। ये गौरैया को बेहद प्रिय हैं, जिन्हें वे बड़े चाव से खाती हैं। जब वे उसे खाने को ही नहीं मिलेंगे, तो वे जिएंगी कैसे? बढ़ते शहरीकरण, कंक्रीट की ऊंची इमारतों और जीवन की आपाधापी के बीच आज व्यक्ति के पास इतना समय ही नहीं है कि वह अपनी छतों पर कुछ जगह ऐसी भी छोड़े, जहां पक्षी अपने घोंसले बना सकें। यदि लोग बचे हुए अन्न के दानों को नालियों, सिंक में बहने से बचाएं और उनको छत की खुली जगह पर डाल दें, तो उनसे गौरैया अपनी भूख मिटा सकती है। पर आधुनिक भवन संरचना में दाने सीधे नालियों में गिरते हैं।

आज सत्ता में बैठे लोगों में शायद ही कोई ऐसा हो, जो पशु-पक्षियों के प्रति संवेदनशील नजरिया रखता हो, उनके बारे में कुछ जानकारियां रखता हो, उन्हें पहचानता हो। इस मामले में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जितनी भी प्रशंसा की जाए, वह कम है। एक बार भरतपुर प्रवास के दौरान उन्होंने केवलादेव पक्षी विहार में तकरीबन 80 चिड़ियों को उनके नाम से पहचानकर सबको चौंका दिया था। हमारे यहां ‘नेचर फॉरएवर सोसाइटी’ के संस्थापक दिलावर मोहम्मद खान अकेले ऐसे शख्स हैं, जो बीते डेढ़ दशक से गौरैया को बचाने के अभियान में लगे हैं।

देखा जाए, तो गौरैया को बचाने के आज तक किए गए सभी प्रयास नाकाम साबित हुए हैं। ‘हेल्प हाउस स्पैरो’ नाम से समूचे विश्व में चलाए जाने वाले अभियान में हमारी सरकार की ओर से कोई सकरात्मक पहल नहीं की गई। यहां तक कि गौरैया को बचाने की दिशा में सरकार ने न कोई कार्यक्रम बनाया और न ही बाघ, शेर, हाथी की तरह कोई प्रोजेक्ट बनाने पर ही विचार हुआ। देश में पहले ही जीव-जंतुओं-पक्षियों की हजारों प्रजातियों के अस्तित्व पर संकट है, उसमें गौरैया और शामिल हो जाएगी, तो सरकार पर कोई खास फर्क पड़ने वाला नहीं। मगर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली का तो यह राजकीय पक्षी है। दुख यह है कि इस बारे मेें सब मौन हैैं। ऐसे में, गौरैया आने वाले समय मेे सिर्फ किताबों में रह जाए, तो क्या आश्चर्य!

(ये लेखक के अपने विचार हैं)


ज्ञानेंद्र रावत पर्यावरण कार्यकर्ता
- ज्ञानेंद्र रावत 
पर्यावरण कार्यकर्ता
साभार : हिन्दुस्तान दैनिक | मुरादाबाद | शनिवार | 24 जून 2017 | कॉलम - नजरिया | पेज संख्या - 12

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

गौरैया के नाम


वैसे हमारे देश भारत में गौरैया को कई नामों से पुकारा जाता है। जैसे गौरा और चटक।  लेकिन क्या आप जानते हैं कि हमारी इस घरेलू पक्षी (गौरैया) के और क्या - क्या नाम हैं ? उर्दू में गौरैया को चिड़िया तथा सिंधी भाषा में झिरकी भी कहा जाता है। गौरैया को भोजपुरी में चिरई तथा बुन्देली में चिरैया कहते हैं। इसे भारत के कई राज्यों में भिन्न - भिन्न नामों से पुकारा जाता है जैसे ,,,,,


जम्मू और कश्मीर - चेर 
पंजाब - चिड़ी
पश्चिम बंगाल - चरूई
ओडिशा (उड़ीसा) -  घरचटिया
गुजरात - चकली 
महाराष्ट्र - चिमानी
कर्नाटक - गुब्बाच्ची
आन्ध्र प्रदेश - पिच्चूका
केरल, तमिलनाडु - कूरूवी

   
यहाँ आने के लिए आप सबका सादर धन्यवाद।। 

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